उत्तराखंड में क्यों बढ़ रही पलायन की चुनौती और क्या हैं?पलायन रोकने के उपाय? Why is the challenge of migration increasing in Uttarakhand and what are the measures to stop migration?

 



उत्तराखंड राज्य गठन के 24 वर्ष बाद भी पलायन जारी, कई गांव  वीरान,हो चुके हैं । उत्तराखंड में पलायन एक बड़ी चुनौती है, पलायन आयोग की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार राज्य में कुल 1,726 गांव आंशिक या पूरी तरह से खाली हो चुके हैं, विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले इस राज्य में आज भी सैकड़ों गांव वीरान होते जा रहे हैं, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और बेहतर जीवन-स्तर की तलाश में लोग लगातार पहाड़ों से मैदान की ओर जा रहे हैं। हालांकि सरकार ग्रामीण विकास के कई कार्यक्रम भी चला रही है, लेकिन इस समस्या के समाधान के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी है‌।

पलायन आयोग की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में 2018 से 2022 के बीच 24 नए गांव पूरी तरह से खाली हो चुके हैं, 2011 से 2018 के बीच, 734 गांव आंशिक या पूरी तरह से खाली हुए थे, जबकि 2022 की रिपोर्ट बताती है कि कुल 968 गांव अब तक निर्जन हो चुके हैं, इस प्रकार, राज्य में कुल 1,726 गांव आंशिक या पूरी तरह से खाली हो चुके हैं।



पलायन का कारण :-


शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की कमी पलायन का कारण है।

उत्तराखंड में पलायन के प्रमुख कारणों में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, रोजगार के अवसरों का अभाव, और कठिन भौगोलिक स्थितियां शामिल हैं। राज्य के कई दूर-दराज के गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है, रोजगार के अवसरों के अभाव में युवा वर्ग शहरों और अन्य राज्यों में नौकरी की तलाश में पलायन कर रहा है। साथ ही सरकारी या  स्वरोजगार योजनाओं की ठीक से जानकारी न होने का अभाव, भी कारण है।


पलायन के रोकथाम हेतु प्रयास :-

राज्य सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में पलायन को रोकने के लिए कई योजनाओं को लागू किया है।इसके तहत गांवों में बुनियादी सुविधाओं का विकास किया जा रहा है। और रोजगार के नए अवसर पैदा किए जा रहे हैं।जैसे सरकारी और स्वरोजगार से जुड़ी योजनाएं,इनका प्रचार -प्रसार और इनकी पहुंच आसान और लचीलापन होना जरूरी है। पलायन आयोग ने सुझाव दिया है कि रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का विकास कर गांवों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है, हालांकि राज्य सरकार ने इस दिशा में कुछ प्रयास किए हैं, जिनमें स्थानीय कृषि उत्पादों का विपणन, पर्यटन को बढ़ावा, और छोटे उद्योगों का विकास शामिल है, इसके साथ ही, सरकार ने उन गांवों की पहचान भी की है जहां लोग बेहतर जीवन के लिए पलायन कर रहे हैं और ऐसे स्थानों पर विशेष योजनाएं शुरू भी की जा रही हैं। लेकिन इस हेतु युवाओं को भी स्वयं जागरूक होकर योजनाओं की जानकारी और इन्हें अपनाने का प्रयास भी करना होगा।आंकड़े जो बताते हैं पलायन की गंभीरता

पलायन आयोग की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड में पलायन का प्रभाव गहराई से महसूस किया जा सकता है, रिपोर्ट के अनुसार, 307310 लोग राज्य से पलायन कर चुके हैं, जिनमें से 28531 लोग स्थायी रूप से राज्य छोड़ चुके हैं, इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि पहाड़ों में आज भी रहने का संकट गहराता जा रहा है,

 सरकार का उद्देश्य है कि ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत ढांचे का विकास कर वहां रहने योग्य वातावरण बनाया जाए,इसके लिए विशेष योजनाएं बनाई गई हैं, जिनमें सरकारी नौकरियों के अवसरों को ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंचाना, पर्यटन के लिए बेहतर सुविधाएं मुहैया कराना, और स्थानीय उत्पादों के विपणन को बढ़ावा देना, स्वरोजगार हेतु लोन आदि।शामिल है,


 इसके अलावा, स्थानीय स्तर पर सामुदायिक विकास कार्यक्रमों के माध्यम से युवाओं को स्वरोजगार के अवसर प्रदान करना भी एक कारगर उपाय साबित हो सकता है। लेकिन खुद भी प्रयास करने होंगे।युवा,अपने क्षेत्रों में नगदी फसलों,मिर्च,अदरक,हल्दी,अचार, बकरीपालन, मधुमक्खी पालन, मछलीपालन,भेड़पालन,इन ब्यवसाओं को कर सकते हैं।इन स्वरोजगार योजनाओं हेतु विभिन्न स्तर,पर लोन और सब्सिडी की भी योजनाएं भी हैं।इनकी स्वयं के प्रयास से जानकारी लेनी जरूरी भी हैं।

[04/01, 6:49 am] sr8741002@gmail.Com: उत्तराखण्ड मे बागवानीऔर नगदी फसलों के उत्पादन को बढावा दिया जाना चाहिए।आज उत्तराखंड में परंपरागत फसलों के उत्पादन और खेती किसानी के तौर तरीकों में बदलाव आया है।कम लागत में ज्यादा मुनाफा देने वाली नगदी फसलों की तरफ नई पीढ़ी का रुझान बढ रहा है। पढ़े लिखे युवा भी खेती किसानी को आजीविका का साधन बना रहे हैं। कृषि एवं बागवानी आधारित उत्पादों की मांग ने मार्केटिंग में प्रदेश में कई स्टार्टअप काम शुरु किये हैं। प्रदेश में कुल कृषि क्षेत्रफल 6.41 लाख हेक्टेयर है इसमें 3.28 लाख हेक्टेयर पर्वतीय और 2.93 लाख हेक्टेयर मैदानी क्षेत्र में आता है। राज्य गठन से पहले पर्वतीय भू-भाग वाले उत्तराखंड में किसान परंपरागत मोटे अनाजों की खेती करते थे। 

पहाड़ों में बिखरी कृषि जोत होने से खेती पर लागत अधिक होने, जंगली जानवरों और बंदरों की समस्या सिंचाई का अभाव समेत किसानों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है यही वजह है कि राज्य गठन के बाद प्रदेश में कृषि क्षेत्रफल में कमी आई है। खेती किसानी में मुनाफा कम होने से किसान खेती छोड़कर पलायन करने लगे। कृषि विभाग के आंकड़े बताते हैं कि 2001 में परती भूमि( ऐसी बंजर भूमि जिसमें पहले खेती होती थी) 1.07 लाख हेक्टेयर थी। जो 2021 तक बढ़कर 1. 91 लाख हेक्टेयर हो गई है। कृषि क्षेत्र में नए अनुसंधान आधुनिक तकनीक और प्रदेश सरकार की योजनाओं से पारंपरिक क्षेत्र में भी बदलाव आया है। 

जंगली जानवरों को बंदरों की समस्या से छुटकारा पाने को किसान अरोमा (सगंध पौध) की खेती अपनाने लगे हैं।किसान सेब ,कीवी के भी नये बगीचे तैयार कर रहे हैं।मशरूम, ड्रैगन फ्रूट,फूलों की खेती की तरफ युवाओं का रुझान बढ़ रहा है। कोविड महामारी से लॉकडाउन में देश-विदेश से उत्तराखंड लौटे प्रवासियों ने खेती किसान डेयरी को आजीविका के रूप में अपनाया है। देहरादून और अन्य जिलों में भी किसानों के उत्पादों को बेचने की व्यवस्था की जा रही है। गोपेश्वर में लिली फूलों की खेती बड़े पैमाने पर की जा रही है। लीलियम के फूलों की बाजार मे बडी़ मांग है।आज उत्तराखण्ड के बहुत से क्षेत्रों मे और पहाड़ के बहुत नदियों के किनारे युवा विषम सुविधाओं,और कई कठिनाइयों का सामना करते हुए भी स्वरोजगार हेतु जैविक खेती,और शब्जी का उत्पादन का कार्य कर रहे हैं।

जिनमे बहुत से नेपाली युवा भी हैं। सामाजिक संगठनों,समाज और सरकारों को इनको प्रोत्साहन किया जाना चाहिए।जो स्वरोजगार के लिए प्रेरणा है। किसानों को इसके उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।साथ ही बिक्री के लिए बाजार की भी उचित व्यवस्था की जा जानी चाहिए।जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के साथ उत्तराखंड की आवो हवा लिलियम की खेती के लिए उपयुक्त है। 6पंखुड़ी वाला यह फूल सफेद, नारंगी, पीले, लाल और गुलाबी रंग में पाया जाता है।उद्यान विशेषज्ञों के अनुसार पाली हाउस में यक्ष फूल 70 दिनों में उपयोग के लिए तैयार हो जाता है। इसका उपयोग सजावट के साथ-साथ ब्यूटी प्रोडक्ट्स बनाने में भी किया जाता है।इसके साथ-साथ नगदी फसलों मे


मिर्च,अदरक,हल्दी,अरबी,भांगभंगजीर,तोर,मंडुवा,आदि पर जोर दिया जाना चाहिए।बागवानी मे सेब,कीवी के साथ माल्टा,मौसमी,किनू नींबू,आँवला,आदि पर भी जोर दिया जाना चाहिए।पलायन पर रोक हेतु मनरेगा जैसे कार्य को किसानों की स्वयं की खेती पर कार्य कर एक प्रोत्साहन का कार्य हो सकता है। इससे उसे दोहरा लाभ होगा।साथ ही खेती को सामूहिक किये जाने से फायदा होगा। ग्रामीण युवाओं को स्वरोजगार के लिए समस्याओं का सामना भी करना पडे़गा।उन्हें फिर भी लगन और धैर्य से स्वरोजगार को बढाना ही होगा।और पलायन को रोकना ही होगा।बागवानी,जैविक खेती मे शब्जी उत्पादन,ग्रामीण बाजारों मे शैलून,कबाड़ का कार्य भी स्वरोजगार और पलायन रोकने के लिए हो सकता है।कार्य कोई भी छोटा नहीं होता है।बल्कि हर कार्य से राष्ट्र की सेवा मे योगदान होता है।

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