उत्तराखंड में ईगास बग्वाल का इतिहास क्या है? क्यों मनाया जाता है? What is the history of Igas Bagwal in Uttarakhand ?why is it celebrated?

 


Igass Bagwaal उत्तराखंड में इगास बग्वाल की धूम

  इगास बग्वाल केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि उत्तराखंड की लोक संस्कृति का प्रतीक है। इस बार यह 12 नवंबर 2024 को मनाई जाएगी। इस पर्व का उद्देश्य न केवल पुरानी परंपराओं का सम्मान करना है, बल्कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को जिंदा रखना भी है।

इगास की खास परंपरा

भैलो खेल इस पर्व का मुख्य आकर्षण है, इस खेल में चीड़ की लकड़ी से बने मशाल जैसे भैलो जलाए जाते हैं और उन्हें घुमाते हुए लोक गीतों और नृत्य का आनंद लिया जाता है,लोग “भैलो रे भैलो,” “काखड़ी को रैलू,” और “उज्यालू ह्वालू अंधेरो भगलू” जैसे पारंपरिक गीत गाते हैं और ‘चांछड़ी’ व ‘झुमेलो’ नृत्य करते हैं। यह पर्यावरण-हितैषी उत्सव है। क्योंकि इसमें पटाखों का उपयोग न के बराबर होता है।

आज इगास बग्वाल न केवल उत्तराखंड की संस्कृति और परंपराओं को संजोता ही नहीं बल्कि युवा पीढ़ी को अपनी जड़ों से जुड़ने और सामुदायिक एकता का महत्व समझने का भी अवसर देता है,हर साल पहाड़ों में भैलो की रोशनी और लोकगीतों की गूंज से यह पर्व जीवंत हो उठता है।

1-माना जाता है कि प्रभु राम जब 14 साल बाद लंका विजय करके वापिस दिवाली के दिन अयोध्या आये थे, तो उत्तराखंड के पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को इसकी जानकारी 11 दिन बाद पता चली, जिस कारण उन्होंने 11 दिन बाद दिवाली मनाई।


 वैसे तो को लेकर कई कथा-कहानियां हैं। लेकिन अगर इगास को वास्तव में जानना हो तो, केवल दो लाइनों में जाना जा सकता है। इन्हीं दो पंक्तियों में पूरे त्योहार का सार छिपा है। वो लाइनें हैं…बारह ए गैनी बग्वाली मेरो माधो नि आई, सोलह ऐनी श्राद्ध मेरो माधो नी आई। मतलब साफ है। बारह बग्वाल चले गये, लेकिन माधो सिंह लौटकर नहीं आए। सोलह श्राद्ध चले गए, लेकिन माधो सिंह का अब तक कोई पता नहीं है। पूरी सेना का कहीं कुछ पता नहीं चल पाया। दीपावली पर भी वापस नहीं आने पर लोगों ने दीपावली नहीं मनाई। इगास की पूरी कहानी वीर भड़ माधो सिंह भंडारी के आसपास ही है। 

2-असल कहानी यही मानी जाती है कि करीब 400 साल पहले महाराजा महिपत शाह को तिब्बतियों से वीर भड़ बर्थवाल बंधुओं की हत्या की जानकारी मिली, तो बहुत गुस्से में थे।इसका प्रतिशोध लेने उन्होंने तुरंत इसकी सूचना माधो सिंह भंडारी को दी और तिब्बत पर आक्रमण का आदेश दे दिया। वीर भड़ माधो सिंह ने टिहरी, उत्तरकाशी, जौनसार और श्रीनगर समेत अन्य क्षेत्रों से योद्धाओं को एकजुट कर सेना तैयार की और तिब्बत पर हमला बोल दिया। इस सेना ने द्वापा नरेश को हराकर, उस पर कर लगा दिया। इतना ही नहीं, तिब्बत सीमा पर मुनारें गाढ दिए, जिनमें से कुछ मुनारें आज तक मौजूद हैं। इतना ही नहीं मैक मोहन रेखा निर्धारित करने में भी इन मुनारों को सीमा माना गया है। इस दौरान बर्फ से पूरे रास्ते बंद हो गए। रास्ता खोजते-खोजते वीर योद्धा माधो सिंह कुमाऊं-गढ़वाल के दुसांत क्षेत्र में पहुंच गये थे।

तिब्बत से युद्ध करने गई सेना को जब कुछ पता नहीं चला, तो पूरे क्षेत्र के  लोग घबरा गए। और शोक में डूब गए। इतना ही नहीं माधो सिंह भंडारी के विरोधियों ने उनके मारे जानें की खबरें भी फैला दी थी। इससे दुखी लोगों के विरह को कई कविताओं में उल्लेख है। लेकिन,मधौसिंह भंडारी उच्छनंदन गढ़ पहुंच गये और गढ़पति की बेटी उदिना को देखते ही माधौसिंह को उदिना से प्रेम हो गया। कहा जाता है कि दो दिन बाद ही उदिना का विवाह होना था। विवाह में माधो सिंह जौनसारी वीरों को लेकर नर्तक बनकर बारातियों का मनोरंजन करने लगे। उदिना भी नृत्य देखने आई और माधो सिंह को पहचान गई। माधो सिंह का इशारा मिलते ही नृत्य में खिलौना बनी तलवारें चमक उठी और माधो सिंह उदिना को भगाकर ले आये। और जब माधो सिंह युद्ध जीत कर वापस श्रीनगर पहुंचे तब उन समस्त क्षेत्र के लोगों ने जिनके वीर इस युद्ध में गये थे igaas bagwal मनाई।उस समय से


एकादशी के दिन मिठ्ठे करेले (परमल)की सब्जी और लाल बासमती के चावलों का भात बनाया जाता है। भैलो बनाने के लिए गांवों से सुरमाडी के लगले (बेल) लेने के लिए लोग टोलियों में निकलते हैं। चीड़ के पेड़ के अधिक ज्वलनशील हिस्से, जिसमें लीसा होता था। उसको काटकर लाया जाता है। चीड़ के अलावा इसके छिलके से भी भैलो बनाए जाते थे। इतना ही नहीं ब्लू पाइन के छिलकों (बगोट)जिनको तिब्बत वासी यहां से आयात करते थे, और इसकी मोटी कीमत चुकाते थे।

भैलू…उजाला करने वाला। इसका एक नाम अंधया भी है। अंध्या मतलब अंधेरे को मात देने वाला। Igaas bagwal में मुख्य आकर्षण भी भैलू ही होता है। लोग भैलू खेलते हैं। इसमें चीड के पेड़ लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। इसके अन्दर का लीसा काफी देर तक लकड़ी को जलाये रखता है। पहले गांव के लोग मिलकर एक बड़ा भैलू बनाते थे। जिसमें समस्त गांव के लोग अपने-अपने घरों से चीड़ की लकड़ी देते थे।



तीसरी कथा-


एक और कहानी महाभारत काल से भी जुड़ी बताई जाती है। दंत कथाओं के अनुसार महाभारत काल में भीम को किसी राक्षस ने युद्ध की चेतावनी थी। कई दिनों तक युद्ध करने के बाद जब भीम वापस लौटे तो पांडवों ने दीपोत्सव मनाया था। कहा जाता है कि इस को भी इगास के रूप में ही मनाया जाता है।

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