पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी को समावेशित और अन्त्योदय का समर्थक क्यों माना जाता है? Why is pandit dindayal Upadhyay considered a supporter of inclusion and Antyodaya?
दीनदयाल उपाध्याय जी का जन्म 25 सितम्बर 1916 को (धनकिया, अजमेर) राजस्थान हुआ था। उनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय व उनकी माता का नाम रामप्यारी था। जो धार्मिक प्रवृत्ति की थीं।सीकर राजस्थान से हाई स्कूल,व 1937 में पिलानी से इण्टर मीडिएट प्रथम श्रेणी में पास किया।तथा 1939 में सनातन धर्म कालेज कानपुर से बी ए भी प्रथम श्रेणी में पास किया।वे शिक्षा के माध्यम से ही मनुष्य का समग्र विकास होना मानते थे।उनके विचार में विदेशी प्रभाव, विदेशी विचारधारा,और विदेशी जीवन मूल्य,किसी भी देश की प्रगति में बाधक होते हैं।वे शिक्षा में भारतीय जीवन मूल्यो को समाहित करने की वकालत करते थे।वे विदेशी भाषा और विदेशी जीवन मूल्यों को अनावश्यक रूप से भारतीयों के ऊपर थोपने के विरोध में विचार रखते थे। उनका विचार था कि आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य सामान्य मानव का सुख है। “ भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है।
दीनदयाल जी जनसंघ के राष्ट्र जीवन दर्शन के निर्माता माने जाते हैं। उनका उद्देश्य स्वतंत्रता की पुनर्रचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्व-दृष्टि प्रदान करना था। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए एकात्म मानववाद की विचारधारा दी।दीनदयाल उपाध्याय स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राजनीति के प्रमुख शिल्पियों में से एक थे। सामान्यत उनकी ख्याति सक्रिय राजनीतिज्ञ और कुशल संगठन के रूप मे रही हैं। पर इससे अधिक वे एक महान विचारक और चिंतक थे।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र पर अपने विचार व्यक्त किये हैं।ये विचार उनके दीर्घकालीन अनुभव पर आधारित थे। उनके विचारों का सारांश इन बिन्दुओं के अंतर्गत व्यक्त किया जा सकता है-
1-राष्ट्र का संगठन -
राष्ट्र एक स्वाभाविक संगठन हैं। मानव-शरीर के सभी अवयव जिस प्रकार स्वाभाविक रूप से क्रियाशील रहते हैं, उसी प्रकार राष्ट्र के विभिन्न घटक भी राष्ट्र सेवा के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं। एक राष्ट्रभाव की विस्मृति के कारण यदि घटक अंग शिथिल पड़ते हैं, तो राष्ट्र का पतन होता हैं और यदि वे पूरी तरह निष्क्रिय हो गये तो संपूर्ण राष्ट्र के विनाश का कारण बनते हैं।
2-अखण्ड भारत
दीनदयाल उपाध्याय की अखण्ड भारत की कल्पना में कटक से अटक, कच्छ से कामरूप तथा कश्मीर से कन्याकुमारी तथा संपूर्ण भूमि के कण-कण को पुण्य और पवित्र नहीं अपितु आत्मीय मानने की भावना अखण्ड भारत के अंतर्गत अभिप्रेरित थी।
3-भारतीयता की अभिव्यक्ति
दीनदयाल उपाध्याय का विचार था कि यदि भारत की आत्मा को समझना है, तो राजनीति अथवा अर्थनीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। विश्व को हम अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता तथा कर्तव्यपरायणता से बहुत कुछ समझा सकते हैं।
4- स्वराज्य एक साधन
स्वराज्य किसी भी राष्ट्र का प्राण हैं। स्वराज्य समाज की वह स्थिति हैं,जिसमें समाज अपने विवेक के अनुसार निश्चित ध्येय की ओर बढ़ सकता हैं।
5-व्यक्ति-राष्ट्र का उपकरण
व्यक्ति राष्ट्र की आत्मा को प्रकट करने का एक साधन हैं। इस प्रकार व्यक्ति अपने स्वयं के अतिरिक्त राष्ट्र का भी प्रतिनिधित्व करता हैं। इतना ही नहीं, अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए राष्ट्र जितनी भी संस्थाओं को जन्म देता हैं, उसका उपकरण व्यक्ति ही हैं और इसलिए वह उनका भी प्रतिनिधि हैं। राष्ट्र में व्यापक जो समष्टियाँ हैं, जैसे मनुष्य उनका प्रतिनिधित्व भी व्यक्ति ही करता हैं।
6- व्यक्ति और समाज
व्यक्ति तथा समाज में किसी प्रकार विरोध नहीं हैं। विकृतियाँ तथा अव्यवस्था की बात छोड़ दे,उन्हें दूर करने के उपाय भी जरूरी होते हैं, किन्तु वास्तविक सत्य यह हैं कि व्यक्ति और समाज अभिन्न और अभिवाज्य हैं। सुंसस्कृत अवस्था वह है कि व्यक्ति अपनी चिन्ता करते हुए भी समाज की चिन्ता करे।
7-राष्ट्र के विधायक तत्व
दीनदयाल जी ने किसी भी राष्ट्र के लिए चार आवश्यक तत्व बताये हैं। प्रथम- भूमि और जन जिसे देश कहते हैं।
द्वितीय-सबकी इच्छा शक्ति अर्थात् सामूहिक जीवन का संकल्प। तृतीय- एक व्यवस्था जिसे नियम अथवा संविधान कहा जा सकता हैं, जिसे वे धर्म कहते हैं।
चतुर्थ -जीवन आदर्श। इन चारों के सम्मिलित स्वरूप को ही राष्ट्र कहा जाता हैं। राज्य और व्यक्ति के बीच सावयवी एकता बताते हुए उन्होंने कहा, जिस प्रकार व्यक्ति के लिए शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा जरूरी हैं तथा इन चारों से मिलकर व्यक्ति का निर्माण होता हैं, उसी प्रकार देश, संकल्प, धर्म और आदर्श के समुच्चय से राष्ट्र का निर्माण होता हैं।
8-चित्ति-राष्ट्र की आत्मा
दीनदयाल जी का विचार है कि राष्ट्र की भी एक आत्मा होती हैं। इसे 'चित्ति' कहा जाता हैं। यह किसी समाज की जन्मजात प्रकृति होती हैं। इसे लेकर ही प्रत्येक समाज का निर्माण होता हैं। किसी भी समाज की संस्कृति की दिशा का निर्धारण इसी चित्ति के अनुकूल ही होता हैं। अर्थात् जो चीज इस चित्ति के अनुकूल होती है वह संस्कृति में सम्मिलित कर ली जाती हैं। चित्ति वह मापदंड हैं, जिसके द्वारा प्रत्येक वस्तु को मान्य अथवा अमान्य किया जाता हैं। यह चित्ति राष्ट्र के प्रत्येक श्रेष्ठ व्यक्ति के आचरण द्वारा प्रकट होती हैं। इसी आचरण के आधार पर राष्ट्र खड़ा होता हैं।
9-राष्ट्र एवं राज्य में अंतर
दीनदयाल जी ने राष्ट्र एवं राज्य में अंतर किया हैं। उनका मत हैं कि राष्ट्र एक स्थायी सत्य हैं। राष्ट्र की आवश्यकता को पूर्ण करने के लिये राज्य उत्पन्न होता हैं। राष्ट्र निर्माण केवल नदियों, पहाड़ों, मैदानों या कंकड़ों के ढेर से ही नहीं होता और न ही यह केवल भौतिक इकाई ही हैं। इसके लिए देश में रहने वाले लोगों के ह्रदयों में उसके प्रति असीम श्रद्धा की अनुभूति होना अति आवश्यक हैं। इसी श्रद्धा की भावना के कारण हम अपने देश को मातृभूमि कहते हैं।
राज्य की आवश्यकता दो परिस्थितियों में होती हैं। पहली आवश्यकता तब होती हैं जब राष्ट्र के लोगों में कोई विकृति आ जाए। ऐसी स्थिति में उत्पन्न समस्याओं के नियमन के लिए जटिलता उत्पन्न हो जाती हैं तथा सार्वजनिक जीवन में व्यवस्था का निर्माण करना आवश्यक होता है। निर्बलता,असहायता, दरिद्रता का लाभ शक्ति सम्पन्न तथा साधन सम्पन्न वर्ग न उठा सकें, सब न्याय की सीमाओं में अपने कार्य को करें, इसके लिए ही राज्य का निर्माण किया जाता हैं। दीनदयाल जी कि सम्पूर्ण जीवन राष्ट्रोत्थान व समाज के निर्माण के प्रति समर्पित रहा है।इसीलिए दीनदयाल उपाध्याय जी को अन्त्योदय और समावेशित विचारधारा के समर्थक, जिसमें मजबूत और सशक्त भारत हो के समर्थक माना जाता है।उनके महान व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर समाज के अन्तिम छोर के ब्यक्ति को सशक्त बनाते हुए नव भारत निर्माण का संकल्प लें।