श्राद्ध क्या है? सनातन/हिन्दू संस्कृति में श्राद्ध क्यों किया जाता है?What is shraddha?Why is shraddha Performed in Sanatan/Hindu culture?
सनातन धर्म में संसार को एक जीवन चक्र बताया है। जिसमे आत्माएं पुनः नये शरीर में जन्म लेती है और शारीरिक मृत्यु के बाद अपनी यात्रा जारी रखते हुए कर्मों के अनुसार फिर से अलग-अलग योनि में जन्म लेती है। हिंदू धर्म में पितृपक्ष का विशेष महत्व है, इसे श्राद्ध काल के रूप में भी जाना जाता है। वैदिक पंचांग के अनुसार यह हर साल भाद्रपद माह में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से शुरू होता है, जो 16 दिनों तक चलता है और अमावस्या पर समाप्त होता है जिसे सर्व पितृ अमावस्या भी कहा जाता है। श्राद्ध की उत्पत्ति श्रद्धा से हुई है यानी कि अपने पित्रों के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने का पर्व ही श्राद्ध है। दुनिया से विदा हो चुके पित्रों की आत्मा की तृप्ति के लिए सच्ची भावना के साथ जो तर्पण किया जाता है। उसे ही श्राद्ध कहते हैं। जिस दिन परिजन की मृत्यु हुई हो उस तिथि से श्राद्ध की तिथि निर्धारण होती है, यानी कि जिस समय व्यक्ति ने अंतिम सांस ली हो और उस समय पंचांग के अनुसार जो तिथि हो पितृपक्ष में उसी तिथि के दिन श्राद्ध करना चाहिए, वहीं तिथि ज्ञात न होने की स्थिति में सर्वपितृ अमावस्या को श्राद्ध करना चाहिए।साथ ही जिन व्यक्तियों की अपमृत्यु हुई हो, अर्थात किसी प्रकार की दुर्घटना,सर्पदंश,विष, शस्त्रप्रहार ,हत्या, आत्महत्या,या किसी अन्य प्रकार से अस्वाभाविक मृत्यु हुई हो तो उनका श्राद्ध मृत्यु तिथि वाले दिन नहीं करना चाहिए।श्राद्ध केवल मनुष्य योनि में होता है, दूसरी किसी योनि में नहीं, और सबोध कर्मों का निराकरण भी केवल मनुष्य योनि में ही संभव है।
आत्मओं का भी एक अलग संसार होता है,या लोक होता है। उसमें अच्छी और बुरी आत्माये दोनों है। पितृ लोक को संरक्षण का लोक भी कहते है, क्योंकि वहां की आत्माएं धरती पर जीवन को संरक्षित करती है। और उन्हें दिशा प्रदान करती है। इसीलिए पित्रों का पूजन किया जाता है। और सभी मांगलिक कार्यों में भी देवताओं के समकक्ष ही उन्हें पूजन अधिकार प्राप्त होते है।
पितृ पक्ष उन्ही पित्रों की आत्माओं को पूजने के लिए निर्धारित किया गया समयावधि है। जरूरी नहीं हमारे सभी पूर्वज मृत्यु के पश्चात पितृ बने हो। जरूरी यह भी नहीं की पितृ बन जाने के बाद उनका जन्म कहीं और न हुआ हो। जरूरी यह है कि आत्माओं को बताया जाए की अच्छे कर्म कर के आप पूजनीय हो जाते है। और देवताओं के समकक्ष ही आपका पूजन होता है। इससे दूसरे लोक की आत्माएं कर्मो द्वारा अपने को पितृ लोक में लाने के यत्न करती है। जब आपके आस-पास की आत्माएं ( जो की सभी के आस पास रहती है) अच्छे कर्म करेंगी तो संसार एक अच्छा लोक बनेगा। इससे आपको पित्रों का संरक्षण भी मिलेगा, और कार्यों में आ रही बाधाएं ( जो माना जाता है बुरी आत्माऐं करती है) भी दूर होती है।
यह इसलिए भी है कि मृत्यु के पश्चात अगर हमें मोक्ष न मिले तो भी कम से कम पितृ लोक में हमे जगह मिले। हमारी आत्मा को भटकना न पड़े। मनुष्य योनि में जन्म लेने के लिए केवल पितृ लोक से आत्मा का आगमन होता है, अन्यथा दूसरे लोक से अन्य निम्न योनि में जन्म मिलेगा। तो श्राद्ध कर्म करके हम अपने मृत्यु के बाद की योनि को सुधार रहे है।
आत्माएं भोजन नहीं करती। वह केवल आपके भाव से संतृष्ट होती है। जब वह आपको अपने लिए यह सब श्राद्ध कर्म करते हुए देखती है तो आपको आशीष देती है। श्राद्ध का अर्थ ही है श्रद्धा से दिया हुआ अर्ध्य है।
पुराणों के अनुसार श्राद्ध का महत्व-
श्राद्ध कर्म की आवश्यकता, महत्व और लाभ
पुराणों के अनुसार श्राद्ध का महत्व
महर्षि सुमंतु ने श्राद्ध से होने वाले लाभ के बारे में बताया है कि 'संसार में श्राद्ध से बढ़कर कोई दूसरा कल्याणप्रद मार्ग नहीं है। अतः बुद्धिमान मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिए।
श्राद्ध की आवश्यकता और लाभ पर अनेक ऋषि-महर्षियों के वचन ग्रंथों में मिलते हैं।
1-गरुड़ पुराण के अनुसार 'पितृ पूजन (श्राद्ध कर्म) से संतुष्ट होकर पित्र मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, वैभव, पशु, सुख, धन और धान्य देते हैं।
2-मार्कण्डेय पुराण के अनुसार 'श्राद्ध से तृप्त होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, सन्तति, धन, विद्या सुख, राज्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करते हैं।
3-ब्रह्मपुराण के अनुसार 'जो व्यक्ति शाक के द्वारा भी श्रद्धा-भक्ति से श्राद्ध करता है, उसके कुल में कोई भी दुःखी नहीं होता।'
साथ ही ब्रह्मपुराण में वर्णन है कि 'श्रद्धा एवं विश्वासपूर्वक किए हुए श्राद्ध में पिण्डों पर गिरी हुई पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदों से पशु-पक्षियों की योनि में पड़े हुए पितरों का पोषण होता है। जिस कुल में जो बाल्यावस्था में ही मर गए हों, वे सम्मार्जन के जल से तृप्त हो जाते हैं।
4-कुर्मपुराण में कहा गया है कि 'जो प्राणी जिस किसी भी विधि से एकाग्रचित होकर श्राद्ध करता है, वह समस्त पापों से रहित होकर मुक्त हो जाता है और पुनः संसार चक्र में नहीं आता।'
5-श्राद्ध का महत्व तो यहां तक है कि श्राद्ध में भोजन करने के बाद जो आचमन किया जाता है तथा पैर धोया जाता है, उसी से पितृगण संतुष्ट हो जाते हैं।
बंधु-बांधवों के साथ अन्न-जल से किए गए श्राद्ध की तो बात ही क्या है, केवल श्रद्धा-प्रेम से शाक के द्वारा किए गए श्राद्ध से ही पितर तृप्त होते हैं।
6-विष्णु पुराण के अनुसार श्रद्धायुक्त होकर श्राद्ध कर्म करने से पितृगण ही तृप्त नहीं होते, अपितु ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, दोनों अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, अष्टवसु, वायु, विश्वेदेव, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी भी तृप्त होते हैं।
7-हेमाद्रि नागरखंड के अनुसार एक दिन के श्राद्ध से ही पितृगण वर्षभर के लिए संतुष्ट हो जाते हैं, यह निश्चित है।
8-देवलस्मृति के अनुसार 'श्राद्ध की इच्छा करने वाला प्राणी निरोग, स्वस्थ, दीर्घायु, योग्य सन्तति वाला, धनी तथा धनोपार्जक होता है। श्राद्ध करने वाला मनुष्य विविध शुभ लोकों को प्राप्त करता है, परलोक में संतोष प्राप्त करता है और पूर्ण लक्ष्मी की प्राप्ति करता है।'
9-अत्रिसंहिता के अनुसार 'पुत्र, भाई, पौत्र (पोता), अथवा दौहित्र यदि पितृकार्य में अर्थात् श्राद्धानुष्ठान में संलग्न रहें तो अवश्य ही परमगति को प्राप्त करते हैं।
10-यमस्मृति के अनुसार 'जो लोग देवता, ब्राह्मण, अग्नि और पितृगण की पूजा करते हैं, वे सबकी अंतरात्मा में रहने वाले विष्णु की ही पूजा करते हैं।'
इसके अलावा भी अनेक वेदों, पुराणों, धर्मग्रंथों में श्राद्ध की महत्ता व उसके लाभ का उल्लेख मिलता है।
उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि श्राद्ध फल से पितरों की ही तृप्ति नहीं होती, वरन् इससे श्राद्धकर्ताओं को भी विशिष्ट फल की प्राप्ति होती है।
अतः हमें चाहिए कि वर्ष भर में पित्रों की मृत्युतिथि को सर्वसुलभ जल, तिल, यव, कुश और पुष्प आदि से उनका श्राद्ध संपन्न करने और गो ग्रास देकर अपने सामर्थ्य अनुसार,गरीबों,असहायों, ब्राह्मणों को भोजन कराकर ऋण उतर जाता है।
इसलिए पुत्र को चाहिए कि भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से प्रारंभ कर आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस्या तक सोलह दिन पितरों का तर्पण और उनकी मृत्युतिथि को श्राद्ध अवश्य करना चाहिए,ऐसा करके आप अपने परम आराध्य पित्रों के श्राद्धकर्म द्वारा आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक उन्नति या सुखमय जीवन जीने का आशिर्वाद प्राप्त कर सकते हैं ।