क्यों भारतीय हिमालयी क्षेत्र में औषधीय पौधे संकटग्रस्त हुए?Endangered medical plants in the Himalayan region

 


आज ही नहीं बल्कि विश्व भर की विभिन्न चिकित्सा प्रणालियों में सदियों से विभिन्न रोगों के इलाज के लिए विभिन्न प्रकार के औषधीय पादपों का उपयोग किया जाता रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया की 80 प्रतिशत आबादी अभी भी अपनी प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल आवश्यकताओं के लिए औषधीय पादपों का उपयोग करती है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों एवं वेदों जैसे-अथर्ववेद, रामायण, महाभारत, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता आदि मे औषधीय पादपों की उपयोगिता का वर्णन मिलता है। भारतीय हिमालय क्षेत्र एक समृद्ध जैव विविधता वाला क्षेत्र है जिसमें लगभग 8000 जाति के आवृत्तबीजी पौधों की प्रजातियां पायी जाती हैं।

जिनमे (40 प्रतिशत स्थानिक) 44 जाति के जिम्नोस्पर्म (16 प्रतिशत  स्थानिक) 600 जाति के टेरिडोफाइटस (25 प्रतिशत स्थानिक) 1737 जाति के ब्रायोफाइट्स फाइट्स (33 प्रतिशत स्थानिक) 1159 जाति के लाइकेन (11प्रतिशत स्थानिक) और 6900 जाति के कवक (27 प्रतिशत स्थानिक) की प्रजातियां पाई जाती है।इसके साथ ही इस क्षेत्र में 1748 प्रकार के औषधीय पादप पाए जाते हैं। इनमें से हिमालयी क्षेत्र में लगभग 436 पादप प्रजातियां संकटग्रस्त है। भारतीय हिमालयी क्षेत्र को औषधीय पादपों के प्रमुख भंडार के रूप में जाना जाता है। यह क्षेत्र भारत के कुल औषधीय पादप जातियों में से लगभग 50 प्रतिशत को प्राकृतिक आवास प्रदान करता है। इस क्षेत्र के राज्यों में औषधीय पादप स्थानीय लोगों की आय का भी महत्वपूर्ण स्रोत हैं। वर्तमान में अधिकांश औषधीय पादप वनों से प्राप्त होते हैं।बढ़ती वैश्विक मांग के साथ-साथ बदलता कानूनों और औषधीय पाइपों की अंधाधुंध दोहन से उत्पन्न खतरे को देखते हुए औषधीय पादपों को खेती के दायरे में लाने की आवश्यकता है। उनकी मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है जिससे एक तरफ आयुर्वेदिक कंपनियां की उत्पादन क्षमता प्रभावित हो रही है वहीं दूसरी तरफ स्थानीय लोगों की आजीविका पर भी प्रभाव पड़ा है। इसके फलस्वरुप भारतीय हिमालयी क्षेत्र में लगभग 112 औषधीय पादप संकटग्रस्त हैं इनमें से जम्मू कश्मीर में (64 प्रजातियां) सबसे अधिक संकटग्रस्त हैं। उसके बाद हिमाचल प्रदेश में (60) और सिक्किम में (50) का स्थान है। उच्च जोखिम वाली प्रजातियां  हिमाचल प्रदेश में (11)सबसे अधिक पाई गयी हैं। उसके बाद अरुणाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और उत्तराखंड में( 9 )प्रजातियां पाई जाती हैं। इनके विलुप्तता के प्रमुख कारण

 *विलुप्तता के प्रमुख कारण*

 बढ़ता तापमान, अनियमित वर्षा और बदलते मौसम का पैटर्न इन औषधीय पादपों की संख्या एवं प्राकृतिक आवासों को प्रभावित कर रहा है।वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन हिमालयी औषधीय पादपों की वितरण सीमा और विविधता को प्रभावित कर रहा है। और उनकी (फिनोलॉजी) यानी फूल आने की और वानस्पतिक विकास अवधि को भी प्रभावित कर रहा है। जो अंततः औषधीय पादपों की उत्पादकता को कम कर देता है। तापमान में परिवर्तन से औषधीय पादपों के रासायनिक गुणों को भी प्रभावित कर रहा है, जलवायु परिवर्तन के कारण बुरांस, किलमोरा आदि औषधीय पादपों का समय से पहले खिलना उनके औषधीय गुणों को प्रभावित कर रहा है। 

 *अत्यधिक दोहन* खासकर दवाइयों और व्यापार के लिए इन औषधीय पादपों का अनियंत्रित दोहन सबसे बड़ा खतरा है। कई दुर्लभ और मूल्यवान प्रजातियों का अवैध रूप से संग्रह किया जाता है। जिससे उनके संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है। कुटकी कुठ,जटामांसी, चोरा सालम मिस्त्री, सालम पंजा, चिरायता,अतिस आदि हिमालयी औषधीय पादपों के अंधाधुंध दोहन से इनकी प्राकृतिक आवासों एवं संख्या में तेजी सी कमी आई है। *

 *प्राकृतिक आवासों का विनाश** वनों की कटाई कृषि विस्तार और बुनियादी ढांचे के विकास से इन पादपो के प्राकृतिक आवास समाप्त हो रहे हैं।

 **वनाग्नि**हर साल हो रहे वनाग्नि से भी कई औषधीय पौधों की संख्या पर विपरीत प्रभाव पड़ता है वनाअग्नि औषधीय पादपो को सीधे जला देती है।उनके बीजों और अंकुरों को नष्ट कर देती है,वनाग्नि मिट्टी को उपजाऊ बनाने वाले पोषक तत्वों को भी नष्ट कर देती है। जिससे इन पादपो के जीवित रहने के लिए आवश्यक पोषक तत्वों का मिलना मुश्किल हो जाता है। 

 *औषधीय पादपो के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु सुझाव* वर्तमान समय में स्थानीय समुदायों की आजीविका विकास के लिए हिमालयी राज्यों में औषधीय पादपो की खेती को और अधिक बढ़ावा देने की आवश्यकता है।  अनुसंधान संस्थानों के सहयोग से आनुवांशिक संसाधन केंटो की स्थापना, गुणवत्तापूर्ण रोपण सामग्री प्रदान करने के लिए मॉडल नर्सरी, खेती कटाई,और कटाई के बाद प्रबंधन आदि पर स्थानीय समुदायों के प्रशिक्षण और क्षमता विकास आदि की भी आवश्यकता है।

 औषधीय पादपों की विविधता का दस्तावेजीकरण, जलवायु परिवर्तन का जैव रासायनिक और आनुवांशिक विविधता पर प्रभाव का आकलन करने, मूल्य  श्रृंखला का विकास, कृषि तकनीकों और प्रसार  प्रोटोकॉल का मानकीकरण करने और औषधीय पादपों के व्यापार और उद्यमों को मजबूत करने के प्रयास औषधीय पौधौं के क्षेत्र के समग्र विकास के लिए आवश्यक है।

 विभिन्न विकसित औषधीय पादपो की खेती एवं संरक्षण के लिए सफल मॉडल को विभिन्न संस्थानों विश्वविद्यालयों उत्तराखंड सरकार की विभागों आदि के सहयोग से अन्य हिमालयी राज्यों में भी दोहराए जाने की आवश्यकता है।

 स्कूली पाठ्यक्रम में औषधीय पादपों उनके उपयोगों और संरक्षण आवश्यकताओं पर पाठों को शामिल किया जाना चाहिए।

 छात्रों को अपने परिवारों के साथ घरेलू औषधीय उद्यान बनाने के लिए प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। यह पुराने और नई पीढ़ियां के बीच ज्ञान को साझा करने को बढ़ावा देता है और सतत जीवन शैली की संस्कृति को बढ़ावा देगा।

छात्रों और समुदायों को नागरिक विज्ञान पहलों में भी शामिल करने की आवश्यकता है। इसमें स्थानीय औषधीय पादपों  की आबादी पर डेटा संग्रह, पारंपरिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण या खतरों की निगरानी शामिल हो सकती है। यह पहल अनुसंधान में भागीदार समुदायों को सशक्त बनाती है। और संरक्षण प्रयासों के लिए मूल्यवान डेटा प्रदान करने में भी सहयोग करेगी। हिमालय के औषधीय पादपों का संरक्षण न सिर्फ पारिस्थितिकी तन्त्र के संतुलन के लिए बल्कि पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां के लिए भी आवश्यक है।इन बिन्दुओं को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना होगा,और आने वाली पीढ़ियों के लिए हिमालय की इस अनमोल धरोहर को हम सभी मिलकर संरक्षित रख पायेंगे।

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