ग्लोबल वार्मिंग से क्या उत्तराखण्ड मे जलवायु परिवर्तन का खतरा?Global Warming
हिमालय का उत्तराखंड राज्य आज भीषण विपत्ति वाले जलवायु संकट का अनुभव ही नहीं बल्कि सामना भी कर रहा है।क्योंकि हिंदूकुश हिमालय के मध्य भाग में इसकी बसावट और भू-आकृतिक दृष्टि से यह एक संवेदनशील तंत्र है। पृथ्वी की उत्पत्ति के इतिहास से ही यूरेशिया और भारतीय प्लेटों के बीच टकराव से तथा समुद्री प्लेटों के निमज्जित हो जाने के बाद लगभग 650 लाख वर्ष पूर्व हिमालय की रचना के साथ ही इस राज्य का भी भू -गर्भिक पुरातन इतिहास है। इस पुरातन भू-गर्भिक धरातलीय पर्वतीय राज्य की पारिस्थैतिक तंत्र में पिछली शताब्दी में तापमान वृद्धि, वाष्पीकरण की दर में वृद्धि, वर्षा का समयानुसार ना होना, मिट्टी की जल ग्रहण क्षमता का कम होना तथा सूखा का प्रकोप और लगातार आपदाओं की पुनरावृत्ति एक गहरी चिंता का विषय है। उत्तराखंड की जलवायु समशीतोष्ण है,जो तापमान में मौसमी बदलाव से चिन्हित है, लेकिन उष्णकटिबंधीय मानसून से भी प्रभावित है जलवायु परिवर्तन के चलते तेजी से बढ़ रहे हैं जंगल में आग लगने के मामलेऔर वनस्पतियों से छेड़छाड़ भी एक कारण है।
उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग से अब तक 1300 हेक्टेयर से ज्यादा जंगल चल चुके हैं। उत्तराखण्ड में स्थित हिमनदों, सतोपंथ, गंगोत्री पिण्डारी, बंदरपूंछ ,चौखम्बा नंदादेवी, पंचाचुली, त्रिशूल आदि का आकार, स्वरूप सघनता गहराई और द्रव्यमान मे परिवर्तन देखा गया है। उत्तराखंड में लगभग 347 ग्लेशियर झीलों में से 17 को जोखिम संभावित श्रेणी में रखा गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्तमान में एक ओर उच्च हिमालयी क्षेत्र में बर्फबारी के स्थान पर वर्षा होने लगी है। जिससे नदियों के व्यवहार तीव्रता वेग और कटाव से प्रभावित भूखंड में तेजी से परिवर्तन दृष्टिगत है।मुख्यतः हवाई छायाचित्र सैटेलाइट चित्र उपग्रह आंकड़े हिमनदों के पीछे खिसकने के प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं। और अलग-अलग समयावधियों में हिमनदों के प्रतिरूपों के सिकुड़ने की प्रक्रिया से समस्त जलवायु चक्र, जल चक्र, प्रभावित हो रहा है।
संयुक्त राष्ट्र आपदा जोखिम न्यूनीकरण कार्यालय के अनुसार भारत को जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं से पिछले 20 वर्षों में 2000 करोड डॉलर की आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ रहा है।जिसकी भरपाई की जानी आसान नहीं है। इस पर्वतीय राज्य का जलवायु दशाओं में परिवर्तन से पारिस्थैतिक तंत्र तो छिन्न- भिन्न हुआ ही है, अपितु यहां की जीवन और जीविकाओं पर विशेष रूप से यहां के निवास कर रही जनजातियों में जैसे थारू,बोक्सा, भोटिया, राजी,गुर्जर, जौनसारी, जौनपुरी, सीमांत क्षेत्र के निवासियों, वनवासी, निर्धन और वंचित समुदायों कृषकों तथा मुख्यतः वे जन समुदाय जो कि पूर्णतः जलवायु की दशाओं पर निर्भर करते हैं और प्राथमिक व्यवसायों में संलग्न है, उनका चिंतित होना स्वाभाविक है। और उनका प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर सुसज्जित और संगठित तंत्र सदैव के लिए क्षरित हो गया है।
असामान्य मौसम से जनित अजीबों गरीब बीमारियों से ग्रसित ये लोग कभी-कभी आपदाओं में अपना आवास, खेती, पशु सब कुछ गँवा बैठते हैं। और मानव क्षति भी होती है। उत्तराखंड राज्य में अलग-अलग जलवायु दशाओं वाले प्रदेशों से स्थानीय समुदाय, प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण से पलायन को मजबूर हो रहा है। उत्तराखंड पलायन आयोग की रिपोर्ट बताती है कि उत्तराखंड के गांवों से प्रतिदिन औसतन दो से तीन परिवार प्रतिवर्ष मैदानी क्षेत्रों की ओर पलायन कर रहे हैं। हिमालयी राज्यों में वनों का क्षेत्रफल 64% भी अधिक है, जो की संपूर्ण देश को दी जाने वाली पारिस्थितिक सेवाओं में अति महत्वपूर्ण जीवन दायक ऑक्सीजन उपलब्ध कराते हैं। इस प्रकार अनेक जीवन दायिनी नदियाँ,भागीरथी, गंगा, अलकनंदा, धौली ऋषि गंगा, टोंस, यमुना, मंदाकिनी,पिण्डर, नंदाकिनी, रामगंगा, नयार, सरयू, काली, गौरी, नदियाँ यहां से उदगमित होकर न केवल उत्तराखंड की पावन धरती तो सींचती हैं अपितु निकटतम प्रदेशों की अधिकतम जन समुदायों को भी पोषित और पल्लवित करती हैं।
पहाड़ों के समस्त व्यापारिक केंद्र, प्रशासनिक, नगर, महानगर, उद्योग नगर, धार्मिक नगर, पर्यटन नगर इन्हीं नदियों के तटों पर बसे हैं। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव केवल स्थानीय स्तर पर ही नहीं होता बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी इसके अनेक प्रतिकूल प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं। जलवायु की विषमताओं मौसम में तेजी से आ रहे बदलाव से मिट्टी की उर्वरकता में कमी, खाद्य संकट, प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण, जल संसाधनों का क्षरण जल संसाधनों की कमी, तथा कृषि उत्पादन में कमी, सर्दियों में जलवायु परिवर्तन तथा बढ़ते तापमान के कारण फसलों पर कीट आक्रमण बढ़ने से वे खड़ी फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। जंगलों में पेड़- पौधों के आवरण में कमी, जैव विविधता की कमी तथा अनेकों पशु भोजन पानी की खोज में बस्तियों की ओर आ रहे हैं।
यह जंगली जानवर जैसे जंगली सूअर, जंगली तोते,बंदर ,लंगूर, खेती- बाड़ी और फसलों को अत्यधिक नुकसान पहुंचा रहे हैं। इसके साथ-साथ लोगों को यह धार्मिक अंध विश्वास होता है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव तथा प्राकृतिक आपदाएं, दैवीय आपदाएं, देव प्रकोप के कारण होती हैं इस प्रकार की गलतफहमी, मिथ्या भ्रम आदि के कारण यह समस्याऐं और जटिल हो जाती हैं। इसीलिए आज तक जलवायु परिवर्तन और उसके परिणामों को लेकर कोई व्यापक स्पष्ट लोकमत नहीं बना है। जिससे कि राजनीतिक दबाव बन सके। तथा समस्त नीतियों में जलवायु विशिष्ट कार्यक्रमों को जोड़ा जा सके। वर्तमान में आवश्यकता है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और उससे सम्बंधित समानुकूल तकनीकियों को व्यापक रूप से विकसित किया जाए। उत्तराखंड और ऊपरी हिमालयी क्षेत्रों में लगातार तापमान वृद्धि के विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। जैसे कि पहाड़ी क्षेत्रों और राज्यों का स्थानीय संतुलन बिगड़ना। वैश्विक प्रणाली की एन्ट्रॉपी में वृद्धि के परिणाम स्वरुप निश्चित रूप से अप्रत्याशित मौसम की स्थिति पैदा होगी यह बिल्कुल स्पष्ट है कि प्राकृतिक क्षेत्र में मानवीय गतिविधियों ने समग्र उत्तराखंड राज्य की जलवायु पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया है। इस अतिशय क्षेत्र को कम करने और उपयोगी क्षेत्रों के आसपास शहरी मंदी और निपटान विकास की जांच और निर्देशन के लिए अभी भी अधिक पर्यावरण अनुकूल विकास प्राप्त करने की आवश्यकता है।आज उत्तराखण्ड मे ग्लेशियरों का पिघलना,और बादल फटने की घटनायें बढती जा रही है।जो भविष्य के लिए बडी़ चुनौती होगी।