श्री गुरुजी राष्ट्र को समर्पित एक ब्यक्तित्व Guruji sadashiv golvalkar
सदाशिव गोळवलकर उपाख्य श्री गुरुजी का जन्म 19 फ़रवरी 1906 को रामटेक महाराष्ट्र मे हुआ था। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक 1940 से 1973 तक रहे। तथा वे महान विचारक थे। वे गुरूजी' के ही नाम से अधिक जाने जाते थे। हिन्दुत्व की विचारधारा का प्रवर्तन करने वालों मे उनका नाम प्रमुख है। वे संघ के द्वित्तीय सर संघचालक रहे।और आरम्भिक नेताओं में से एक थे।
वे अपने माता-पिता की चौथी संतान थे। उनके पिता का नाम श्री सदाशिव राव उपाख्य 'भाऊ जी' तथा माता का श्रीमती लक्ष्मीबाई उपाख्य 'ताई' था। उनका बचपन में नाम माधव रखा गया पर परिवार में वे मधु के नाम से ही पुकारे जाते थे। पिता सदाशिव राव प्रारम्भ में डाक-तार विभाग में कार्यरत थे परन्तु बाद में उनकी नियुक्ति शिक्षा विभाग में 1908 में अध्यापक पद पर हो गयी।
मधु जब मात्र दो वर्ष के थे तभी से उनकी शिक्षा प्रारम्भ हो गयी थी। पिताश्री भाऊजी जो भी उन्हें पढ़ाते थे उसे वे सहज ही इसे कंठस्थ कर लेते थे। बालक मधु में कुशाग्र बुद्धि, ज्ञान की लालसा, असामान्य स्मरण शक्ति जैसे गुणों का समुच्चय बचपन से ही विकसित हो रहा था। सन् 1919 में उन्होंने 'हाई स्कूल की प्रवेश परीक्षा' में विशेष योग्यता दिखाकर छात्रवृत्ति प्राप्त की। सन् 1922 में 16 वर्ष की आयु में माधव ने मैट्रिक की परीक्षा चाँदा (अब चन्द्रपुर) के 'जुबली हाई स्कूल' से उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् सन् 1924 में उन्होंने नागपुर के ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित 'हिस्लाप कॉलेज' से विज्ञान विषय में इण्टरमीडिएट की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। अंग्रेजी विषय में उन्हें प्रथम पारितोषिक मिला। वे भरपूर हाकी तो खेलते ही थे कभी-कभी टेनिस भी खेला करते थे। इसके अतिरिक्त व्यायाम का भी उन्हें शौक था। मलखम्ब के करतब, पकड़ एवं कूद आदि में वे काफी निपुण थे। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने बाँसुरी एवं सितार वादन में भी अच्छी प्रवीणता सीख ली थी।
इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद माधवराव के जीवन में एक नये दूरगामी परिणाम वाले अध्याय का प्रारम्भ सन् 1924 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश के साथ हुआ। सन् 1926 में उन्होंने बी.एससी. और सन् 1928 में एम.एससी. की परीक्षायें भी प्राणिविज्ञान विषय में प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण कीं। वे बड़े मेधावी छात्र रहे।
विश्वविद्यालय में बिताये चार वर्षों के कालखण्ड में उन्होंने विषय के अध्ययन के अलावा संस्कृत महाकाव्यों, पाश्चात्य दर्शन, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द की ओजपूर्ण एवं प्रेरक 'विचार सम्पदा', भिन्न-भिन्न उपासना-पंथों के प्रमुख ग्रंथों तथा शास्त्रीय विषयों के अनेक ग्रंथों का आस्थापूर्वक पठन किया। इसी बीच उनकी रुचि आध्यात्मिक जीवन की ओर जागृत हुई। एम.एससी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे प्राणि-शास्त्र विषय में 'मत्स्य जीवन' पर शोध कार्य हेतु मद्रास (चेन्नई) के मत्स्यालय से जुड़ गये। एक वर्ष के दौरान ही उनके पिता श्री भाऊजी सेवानिवृत्त हो गये, जिसके कारण वह श्री गुरूजी को पैसा भेजने में असमर्थ हो गये। इसी मद्रास-प्रवास के दौरान वे गम्भीर रूप से बीमार पड़ गये। चिकित्सक का विचार था कि यदि सावधानी नहीं बरती तो रोग गम्भीर रूप धारण कर सकता है। दो माह के इलाज के बाद वे रोगमुक्त तो हुए परन्तु उनका स्वास्थ्य पूर्णरूपेण से पूर्ववत् नहीं रहा। मद्रास प्रवास के दौरान जब वे शोध में कार्यरत थे तो एक बार हैदराबाद का निजाम मत्स्यालय देखने आया। नियमानुसार प्रवेश-शुल्क दिये बिना उसे प्रवेश देने से श्री गुरूजी ने इन्कार कर दिया। आर्थिक तंगी के कारण श्री गुरूजी को अपना शोध-कार्य अधूरा छोड़ कर अप्रैल 1929 में नागपुर वापस लौटना पड़ा।
नागपुर आकर भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा। इसके साथ ही उनके परिवार की आर्थिक स्थिति भी अत्यन्त खराब हो गयी थी। इसी बीच बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्हें निदर्शक (demonstrator) पद पर सेवा करने का प्रस्ताव मिला। 16 अगस्त सन् 1931 को श्री गुरूजी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में निदर्शक का पद संभाल लिया। चूँकि यह अस्थायी नियुक्ति थी। इस कारण वे प्रायः चिन्तित भी रहा करते थे।
अपने विद्यार्थी जीवन में भी माधव राव अपने मित्रों के अध्ययन में उनका मार्गदर्शन किया करते थे और अब तो अध्यापन उनकी आजीविका का साधन ही बन गया था। उनके अध्यापन का विषय यद्यपि प्राणि-विज्ञान था, विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी प्रतिभा पहचान कर उन्हें बी.ए. की कक्षा के छात्रों को अंग्रेजी और राजनीति शास्त्र को भी पढ़ाने का अवसर दिया। अध्यापक के नाते माधव राव अपनी विलक्षण प्रतिभा और योग्यता से छात्रों में इतने अधिक अत्यन्त लोकप्रिय हो गये कि उनके छात्र उनको गुरुजी के नाम से सम्बोधित करने लगे। इसी नाम से वे आगे चलकर जीवन भर जाने गये। माधव राव यद्यपि विज्ञान के परास्नातक थे, फिर भी आवश्यकता पड़ने पर अपने छात्रों तथा मित्रों को अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, गणित तथा दर्शन जैसे अन्य विषय भी पढ़ाने को सदैव तत्पर रहते थे। यदि उन्हें पुस्तकालय में पुस्तकें नहीं मिलती थीं, तो वे उन्हें खरीद कर और पढ़कर जिज्ञासी छात्रों एवं मित्रों की सहायता करते रहते थे। उनके वेतन का बहुतांश अपने होनहार छात्र-मित्रों की फीस भर देने अथवा उनकी पुस्तकें खरीद देने में ही व्यय हो जाया करता था।उनको डॉ॰ हेडगेवार जी के द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भेजा गया। नागपुर के स्वयंसेवक भैयाजी दाणी के द्वारा श्री गुरूजी संघ के सम्पर्क में आये और उस शाखा के संघचालक भी बने। 1937 में वो नागपुर वापस आ गए।
नागपुर में श्री गुरूजी के जीवन में एक दम नए मोड़ का आरम्भ हो गया। डॉ हेडगेवार जी के सानिध्य में उन्होंने एक अत्यन्त प्रेरणादायक राष्ट्र समर्पित व्यक्तित्व को देखा। किसी आप्त व्यक्ति के द्वारा इस विषय पर पूछने पर उन्होंने कहा
मेरा रुझान राष्ट्र संगठन कार्य की और प्रारम्भ से है। यह कार्य संघ में रहकर अधिक परिणामकारिता से मैं कर सकूँगा, ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए मैंने संघ-कार्य में ही स्वयं को समर्पित कर दिया। मुझे लगता है स्वामी विवेकानन्द के तत्वज्ञान और कार्यपद्धति से मेरा यह आचरण सर्वथा सुसंगत है।
1938 के पश्चात संघ कार्य को ही उन्होंने अपना जीवन कार्य मान लिया। डॉ हेडगेवार जी के साथ निरन्तर रहते हुवे अपना सारा ध्यान संघ कार्य पर ही केंद्रित कर दिया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार जी के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव और प्रबल आत्मसमर्पण होने के कारण से 1939 में माधव सदाशिव गोलवलकर जी को संघ का सरकार्यवाह नियुक्त किया गया। 1940 में डॉ हेडगेवार का ज्वर बढ़ता ही गया और अपना अन्त समय जानकर उन्होंने उपस्थित कार्यकर्ताओं के सामने माधव को अपने पास बुलाया और कहा अब आप ही संघ का कार्य सम्भालें 21 जून 1940 को हेडगेवार जु अनन्त में विलीन हो गए।
9 अगस्त 1942 को बिना शक्ति के ही कांग्रेस ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आन्दोलन छेड़ दिया। देश भर में बड़ा आंदोलन शुरू तो हो गया, परन्तु असंगठित दिशाहीन होने से सत्ताधारियों ने बड़ी क्रूरता से दमन नीतियाँ अपनाई। 2-3 महीने होते-होते आंदोलन की चिंगारी शांत हो गई। देश के सभी नेता कारागार में थे और उनकी रिहाई की कोई आशा दिखाई नहीं दे रही थी। श्री गुरूजी ने निर्णय किया था की संघ प्रत्यक्ष रूप से तो आंदोलन में भाग नहीं लेगा किन्तु स्वयंसेवकों को व्यक्तिशः प्रेरित किया जाएगा।
16 अगस्त 1946 को सीधी कार्यवाही का दिन घोषित कर के मुहम्मद अली जिन्नाह ने हिन्दू हत्या का ताण्डव मचा दिया। उन्ही दिनोँ में श्री गुरूजी देश भर के अपने प्रत्येक भाषण में देश विभाजन के खिलाफ डट कर खड़े होने के लिए जनता का आह्वान करते रहे। पण्डित नेहरू ने भी स्पष्ट शब्दों में विभाजन को स्वीकार कर लिया था।और 3 जून 1947 को इसकी घोषणा कर दी गई। एकाएक देश की स्थिति बदल गई। इस कठिन समय में स्वयंसेवकों ने पाकिस्तान वाले भाग से हिंदुओं को सुरक्षित भारत भेजना शुरू किया। संघ का आदेश था की जब तक आखिरी हिन्दू सुरक्षित ना आ जाए तब तक डटे रहना है। इन दिनों में स्वयंसेवकों का अतुलनीय पराक्रम, रणकुशलता, त्याग और बलिदान की गाथा भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखने लायक हो गया था। श्री गुरूजी भी इस कठिन घड़ी में भारत के उस भाग में घूमते रहे जो 15अगस्त 1947को पाकिस्तान बना दिया गया।
30 जनवरी 1948 को गांधी जघ की हत्या के मिथ्या आरोप में 4 फरवरी को संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया। श्री गुरूजी को गिरफ्तार किया गया। देश भर में स्वयंसेवको की गिरफ्तारियां हुई। जेल में रहते हुवे उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं का विस्तृत व्यक्तव्य भेजा जिसमे सरकार को मुहतोड़ जवाब दिया गया था। आह्वान किया गया की संघ पर आरोप सिद्ध करो या प्रतिबन्ध हटाओ।
26 फरवरी 1948 को देश के प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू को गृहमंत्री वल्लभ भाई पटेल ने अपने पत्र में लिखा था गांधी हत्या के काण्ड में मैंने स्वयं अपना ध्यान लगाकर पूरी जानकारी प्राप्त की है। उस से जुड़े हुवे सभी अपराधी लोग पकड़ में आ गए हैं।तब सरदार वल्लभभाई पटेल ने गुरूजी को भेजे हुवे अपने सन्देश में लिखा की संघ पर से पाबन्दी उठाने पर मुझे जितनी खुशी हुई इसका प्रमाण तो उस समय जो लोग मेरे निकट थे वे ही बता सकते हैं। मैं आपको अपनी शुभकामनाएं भेजता हूँ।
श्री गुरूजी ने चीनी आक्रमण शुरू होते ही जो मार्ग दर्शन दिया था। उसके परिप्रेक्ष्य में स्वयंसेवक युद्ध प्रयत्नों में जनता का समर्थन जुटाने तथा उनका मनोबल दृढ करने में जुट गए। उनके सामयिक सहयोग का महत्व पण्डित नेहरू को भी स्वीकार करना पड़ा। और उन्होंने सन् 1963 में गणतंत्र दिवस के पथ संचलन में कुछ संघ के लोगो की आपत्ति के बाद भी संघ के स्वयंसेवकों को भाग लेने हेतु आमंत्रण भिजवाया। संघ के तीन सौ गणवेषधारी स्वयंसेवकों का घोष की ताल पर कदम मिलाकर चलना उस दिन के कार्यक्रम का एक प्रमुख आकर्षण था।
गोलवलकर जु ने बंच ऑफ थॉट्स,तथा वी, ऑर ऑवर नेशनहुड डिफाइंड पुस्तकें लिखीं। 'बंच ऑफ थॉट्स' का हिन्दी में (विचार नवनीत)नाम से अनुवाद हुआ है।
उनके विचारों पर आधारित संघ द्वारा प्रकाशित "गुरूजी (दृष्टि एवं लक्ष्य)नामक पुस्तक में हिन्दू मातृभूमि का पुत्र नामक एक अध्याय में लिखा है कि।भारतीय' वही है जिनकी दृष्टि व्यापक है। और भारतीय धर्मों को मानने वाले सभी मानते हैं कि ईश्वर एक ही है उसे पाने के मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं।परन्तु लक्ष्य एक ही है। जब कभी भी भारत की एकता, अखंडता की बात होगी तब -तब गुरुजी के राष्ट्र जीवन में किए गए योगदान की चर्चा अवश्य होगी,चाहे स्वतंत्रता के बाद कश्मीर विलय हो या फिर अन्य कोई महत्वपूर्ण प्रकरण श्री गुरुजी को राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा की भारी चिंता लगी रहती थी।उनके अनुसार भारत कर्मभूमि,धर्मभूमि, और पूण्यभूमि है। यहां का जीवन विश्व के लिए आदर्श है। भारत राज्य नहीं राष्ट्र है। राष्ट्र बनाया नहीं गया अपितु यह तो सनातन राष्ट्र है।श्री गुरुजी द्वारा प्रदत महान विचार पुंज तेजस्वी भारत राष्ट्र की परिकल्पना की दृष्टि करता है। श्री गुरुजी की आध्यात्मिक शक्ति इतनी प्रबल थी कि ध्यान इत्यादि के माध्यम से उन्हें आने वाले संकटों का आभास भी हो जाता था।श्री गुरुजी निरन्तर राष्ट्र श्रद्धा की प्रतीकों का मान, रक्षण करते रहे। वे सदैव देश हित में स्वदेशी चेतना, स्वदेशी व्रत,स्वदेशी जीवन पद्धति, भारतीय वेशभूषा तथा सुसंस्कार की भावना का समाज के समक्ष प्रकटीकरण करते रहे। गौ रक्षा, के प्रति चिंतित, व क्रियाशील रहते थे।श्री गुरु जी की प्रेरणा से ही गोरक्षा का आंदोलन संघ ने प्रारंभ किया।विश्व भर के हिंदुओं को संगठित करने के उद्देश्य के लिए विश्व हिंदू परिषद की स्थापना की गई। विद्या भारती के नेतृत्व में अनेकों शिक्षण संस्थाओं का श्री गणेश हुआ।उनकी प्रेरणा से संभवत सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐसा ही कोई क्षेत्र छूटा हो जहां संघ के आनुसांगिक संगठनों का प्रादुर्भावना न हुआ हो। श्री गुरुजी अपने उद्बबोधनों में प्रायः यह कहा करते थे कि देश के मात्र 3% लोग भी समर्पित होकर देश की सेवा करें तो देश की बहुत सी समस्याएं स्वतः ही समाप्त हो जाऐंगी।श्री गुरु जी ने लगभग 33 वर्षों तक संघ कार्य किया और पूरे देश भर में फैला दिया।उनकी ख्याति पूरे देश में ही नहीं अपितु विश्वभर में भी फैल चुकी थी। वर्ष 1970 में हुए कैंसर से पीड़ित हो गए।शल्य चिकित्सा से कुछ लाभ हुआ तो हुआ पर पूरी तरह नहीं इसके बाद भी वे प्रवास करते रहें।और अपने समस्त कार्यों का संपादन करते हुए श्री गुरुजी ने 5 जून 1973 को रात्रि नागपुर महाराष्ट्र में शरीर को छोड़ दिया।और स्वर्गवासी हो गये।उनका जीवन एक राष्ट्रऋषि के रूप मे सदा अमर रहेगा।