सात युद्ध लड़ने वाली बीरबाला तीलू रौतेली का जन्म कब हुआ?Veerbala Teelu Rauteli
बीर बाला तीलू रौतेली का जन्म 8 अगस्त 1661 को पौड़ी गढ़वाल चौंदकोट पट्टी के गुराड़ गांव में भोप सिंह रावत के घर हुआ था।भोपसिंह रावत गढवाल नरेश के प्रमुख सभासदों मे से एक थे। तीलू बचपन से ही अदभुद प्रतिभा से युक्त, बड़ी साहसी, निडर और दृढ़ इच्छा शक्ति वाली बालिका थी।उसके अतुलनीय साहस, वीरता के कारण से उसे गढवाल की झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के नाम से भी जाना जाता है।
गढवाल में कत्यूरों का हमला लगातार होता रहता था। एक हमले मे तीलू रौतेली के दोनों भाइयों द्वारा कत्यूरी सेना के सरदार को हराकर उसका सिर काटकर गढ़ नरेश को प्रस्तुत करने पर गढ नरेश ने दोनों भाइयों को 42-42 गांव जागीर के रूप मे दे दिये थे। फतेह सिंह का मुख्यालय पड़सोली पट्टी गुजडू़ और भगतसिंह रावत का मुख्यालय सिसई पट्टी खाटली मे था। जहां वर्तमान मे इनके वशंज है।कत्यूरों के हमले लगातार होते ही रहते थे।भोपसिंह रावत भी कत्यूरों के साथ युद्ध मे लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये। इसके प्रातिशोध मे तीलू के दोनों भाई (भगतसिंह रावत, फतेहसिंह रावत )और मंगेतर भवानीसिंह नेगी भी कत्यूरों के साथ युद्ध मे लड़ते -लड़ते वीर गति को प्राप्त हो गये।
इन सभी घटनाओं से अनजान तीलू कुछ दिनों बाद कांडा गांव मे हो रहे मेले में जाने की जिद करने लगी। जहां तीलू का बचपन भी गुजरा था।तो उसकी मां ने रोते हुए ताना मारा की जा पहले अपने भाइयों और पिता की मौत का बदला ले।फिर मेले जाना।काश तू बेटी न होकर बेटा होती तो बेटा जरुर बदला ले लेता।पर तू बेटी है।बस यही बात बाल तीलू के कोमल मन में को चुभ गयी। और उसने मेला जाने का ध्यान छोड़ ही दिया। और फिर आजीवन शादी न करने का भी प्रण करके प्रतिशोध की धुन पकड़ ली।उसने अपनी सहेलियों को साथ लेकर एक सेना बनानी शुरू कर दी। पुरानी बिखरी हुई सेना को एकत्र करना भी शुरू कर दिया। प्रतिशोध की ज्वाला ने तीलू को घायल शेरनी की तरह बना दिया था। हथियारों से लैस सैनिकों तथा बिंदुली नाम की घोड़ी और अपनी दो प्रमुख सहेलियों बेलो और देवली को साथ लेकर युद्ध भूमि के लिए प्रस्थान किया। वह युद्ध भूमि मे जाते समय मात्र 15 साल की थी।सबसे पहले उसने खैरागढ(कालागढ के समीप)को कत्यूरों से मुक्त करवाया।फिर उम्टागढी, सल्डमहादेव,को कत्यूरों से मुक्त करवाया।चौखुटिया,देघाट,तक गढराज्य की सीमा निर्धारित करने के बाद वापसी मे कालिंकाखाल मे तीलू का कत्यूरों के साथ घमासान युद्ध हुआ।
फिर संराईखेत मे कत्यूरों को परास्त कर तीलू ने सभी बलिदानों का बदला ले लिया।इसी स्थान पर तीलू की घोडी़ शत्रुओं के वारों से घायल होकर तीलू का साथ छोड़ गयी।शत्रुओं को हराने के बाद तीलू रौतेली लौट रही थी।तो जल स्रोत को देखकर उसका मन कुछ विश्राम करने को हुआ।कांडा गांव के ठीक नीचे पूर्वी नयार नदी मे पानी पीते समय उसने अपनी तलवार नीचे रख दी।और जैसे ही वह पानी पीने नीचे झुकी उधर घात लगाकर छुपे हुए और पराजय से अपमानित रामू रजवार नामक एक कत्यूरी सैनिक ने तीलू की तलवार उठाकर उस पर हमला कर दिया।
लेकिन तीलू ने प्राण त्यागने से पहले अपनी कटार से रामू परमार को मौत के घाट उतार दिया।इस छुपकर हुए वार से वीरांगना तीलू रौतेली वीर गति को प्राप्त हो गयी।उस समय तीलू 22 साल की थी।उसने लगभग सात वर्षों में 7 युद्ध लडे़। उसने गढ़वाल के 13 गढों पर विजय प्राप्त किया। उसने दुश्मन राजाओं को कड़ी चुनौती दी थी। वह सात युद्ध लड़ने वाली विश्व की एकमात्र वीरांगना है। उत्तराखंड सरकार ने तीलू रौतेली के सम्मान में 2006 से तीलू रौतेली सम्मान का शुभारम्भ किया। समाज मे अदम्य साहस,समर्पण,और जन सरोकारों के लिए लड़ने समाज हित मे काम करने वाली महिलाओं को यह सम्मान दिया जाता है।तीलू रौतेली वीरांगना के रुप मे आज भारत ही नहीं विश्व के इतिहास मे अमर है।